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मैं भारतीय सिनेमा जगत का पूरा तो नही लेकिन कुछ हद तक आभारी जरूर हूँ, क्योंकि कुछ चलचित्रों के माध्यम से इसने बखूबी अपने ‘सिनेमा समाज का दर्पण” होने के सार्थक और सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाया है। ६० के दशक में ऐसी ही एक पिक्चर बनी थी ‘मदर इंडिया’। इस पिक्चर में दिखाया गया था कि ‘कैसे कलम की नीली स्याही से लिखा लाला के बही का कभी ना घटने वाला ब्याज ग़रीब और हालात से त्रस्त नायिका के छोटे बेटे को डाकू और लूटेरा बनने पर मजबूर कर देता है”। इसे देखकर जेहन में यह विचार उठना लाज़मी है कि कलम जिसके हाथों में हो एक तो उसे सही और जायज़ हिसाब लिखना आना चाहिए और दूसरा ऐसे हाथों का काबिल, ज़िम्मेदार और निस्वार्थ होना भी आवश्यक है। अगर ऐसा नही होता है तो नीली स्याही से लिखा ग़लत हिसाब अक्सर शोषित वर्ग को बदले का लाल रंग अक्तियार करने पर मजबूर कर ही देता है।
भारतीय इतिहास के पन्नों को खंगालें तो हमें यह बात समझने में ज़्यादा उलझन नहीं होनी चाहिए कि आज़ादी की लड़ाई और स्वराज हाँसिल करने के पैदा हुए जज़्बे के पीछे भी अँग्रेज़ी हुकूमत के लिखे और जारी किए हुए वो औरंगजेबी फरमान ही थे जो भारतीय व्यक्ति, समाज और देश को राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक रूप से शोषित त्रस्त भूखा लाचार और ग़रीब ही रखना चाहते थे। इतिहास गवाह है कि 1857 से 1947 तक के दशक में नीली स्याही से लिखे गये कितने ही क़ानून और विधेयक भारत के जनमानस और अँग्रेज़ी सत्ता के बीच सीधे टकराव और संघर्ष का कारण बनें और हजारों देशभक्तों का खून बहा।
अब एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि आजादी का संघर्ष इस बात के लिए कतई नहीं था कि विदेशी मूल के लोगों का भारत की प्रशासनिक और व्यापारिक इकाइयों पर एकल अधिपत्य था और इससे हमारे स्वाभिमान पर प्रशन चिन्ह लग रहा था, बल्कि यह संघर्ष उन कानूनों और नियमों के खिलाफ था जो भारत के जनमानस को उसकी राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक शक्तियों को एक वर्ग विशेष पर निर्भर रखने के लिए अंकित किए जा रहे दे। गौरतलब बात यह भी है कि कानून और विधेयक बनाकर अधिपत्य हांसिल करने की इस प्रक्रिया में केवल विदेशी हुक्मरान नहीं थे उनके साथ भारत के स्थानीय राजवंश, राजघराने, जमींदार और दीवान भी तो शामिल थे। तो ऐसा मानना अनुचित है कि आजादी की लड़ाई सिर्फ अङ्ग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ थी। स्कूली पाठ्यक्रमों में भले ही इतिहास को 1947 में आजादी हांसिल होने की जीत के जश्न पर ही रोक दिया गया हो और हजारों ने इसे मान भी लिया हो, लेकिन यह अर्धसत्य मेरे विध्यार्थी मन को विचलित कर देता है कि अगर समस्या अंग्रेज़ या विदेशी हुकुमरान थे तो फिर मात्र 57 सालों के अंतराल में ही क्यों इस स्वतंत्र शक्तिशाली स्वाभिमानी भारत को 91 में उनकी रातोंरात दोबारा जरूरत आन पड़ी। परिस्थियाँ आज भी जस कि तस हैं। आज भी भारत के इंडस्ट्रियल हुब कहलाए जाने वाले तमाम शहरों में खड़ी ऊंची इमारतों में जो कंपनियाँ काम कर रही हैं वे सब आखिर विदेशी ही तो हैं।
गहराई से सोचें तो वास्तविकता यह है कि जनमानस को ‘स्वराज’ ‘आजादी’ ‘स्वतन्त्रता’ ‘बदलाव’ ‘सुधार’ ‘परिवर्तन’ ‘गरीबी हटाओ’ ‘देश बचाओ’ या कोई और मिलता जुलता नारा देना सिर्फ सत्ता हांसिल करने की प्रक्रिया में जन सैलाब को सक्रिय करने का माध्यम मात्र है फिर चाहे वह तंत्र प्रजातन्त्र, लोकतन्त्र, गणतन्त्र या तानाशाही तंत्र ही क्यों न हो। वर्तमान में सक्रिय आंतकवाद, माओवाद, आरक्षण, सांप्रदायिक झगड़े, सामाजिक वैर भाव, विरोध प्रदर्शन, सीमा विवाद, भ्रस्टाचार, और ना जाने ऐसे कितने ही विवादास्पद मसलों की उपज व जड़ के लिए भी कहीं न कहीं वे नाकाबिल अधिकारिक हुक्मरान ज़िम्मेदार भी हैं, और दोषी भी, जिनके हाथों में कलम से सही क़ानून, नीतियाँ और प्रावधान लिखने की अहम ज़िम्मेदारी थी और…..है।
खैर, हुकुमते चाहे अपने आप को कितना ही ताकतवर क्यों ना समझती हों, इसी तंत्र में एक ऐसा वर्ग भी बस्ता है जो गंभीर है, उन्माद से परे है, सोचता है, नीतियों का विश्लेषण करता है और समय समय पर जनचेतना के लिए अपनी कलम का सही प्रयोग कर अपने नागरिक होने का हक अदा करता रहता है ।
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