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यहाँ मेरी समझ धोखा खा जाती है।

सियासत
सियासत
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सरकार चाहे मुझे आम आदमी की बेबस श्रेणी मे रखने का कितना भी प्रयास करे, लेकिन मैंने अपने आप को कभी आम या केला नहीं समझा। ठीक उसी तरह जैसे बड़े-बड़े घोटालो में लिप्त और सार्वजनिक जीवन में प्रत्यक्ष तौर से दागी राजनेता बड़े सहज भाव मीडिया चैनल के माध्यम से मुस्कुराकर कहते हैं – “आई अम ईन्नोसेंट” “यह मेरे विरोधियो की चाल है” “मुझे फंसाया गया है”I भई वाह ! सुनने वालों को लगता है, “कैसी निर्मम है हमारी सामाजिक और राजनीतिक वयवस्था है, और कितनी बेरहम है इसकी कानूनी प्रक्रिया ? हमेशा ईन्नोसेंट को ही दोषी मानती है !

तंत्र ही ऐसा है कि ख़ास को आम समझतI है और आम को खास। मैं अपने आप को कितना ही तीस मार खाँ समझता रहूँ सरकार की नजर में केवल आम हूँ जो कभी ख़ास नहीं हो सकता क्योंकि ना तो मैं उनकी कोठी पर हाज़री देने जाता हूं, ना ही उनके दिये हुए आश्वासनों पर आँख बंद कर यकीन कर लेता हूँ, और तो और, उनकी गलत नीतियो की आलोचना भी कर देता हूँ। अब वे भी राजनेता है, मार्यदा पुरोषोतम राजा राम तो नहीं जो मुझ जैसे धोभी की बात पर ऐसे ही अपनी पत्नी जैसे राजनीतिक जीवन को दाँव पर लगा देंगे। आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद जब मैं देखता हूँ कि आज भी देश बिजली, पानी, सड़क, घर, रोजगार, भोजन जैसी बुनियादी जरूरतों के इर्द गिर्द ही घूम रहा है तो मन में पूरे तंत्र के खिलाफ एक खिन्नता सी भर जाती है कि आख़िर इतने वर्षो तक हम क्या करते रहे हैं ? जवाब कुछ ऐसे हैं जो हम जानते तो हैं लेकिन अनजान बने रहने में राहत मिलती है।

तो ऐसा क्यों है ? मेरा मत है कि दोष वयवस्था या तंत्र का न होकर, मेरे और सरकार के बीच बिछी उस सियासी शतरंज का है जहां जीत के लिए कुछ भी दांव पर लगाने मेँ और प्रतिद्वंदी को हराने के लिए खेली गई हर चाल एक अच्छा और निपुण खिलाड़ी होने का प्रमाण है। दोषारोपण और आरोप-प्रत्यारोप कि इस बाजी मेँ जीत हांसिल करने के उन्माद में पूरी वयवस्था धृतरासत्र जैसी बन गई है और भीष्म जैसे बुद्धिजीवियो के सामने “हस्तिनापुर से बंधे होने” की प्रतिज्ञा अड़ी हुई है।

विधार्थी जीवन मेँ शिक्षा पाठ्यक्रम के पहले अधाय में बताया जाता है कि – “शिक्षार्थ आइये; सेवार्थ जाइए”, “समाजसेवा और देशसेवा से बड़ा कोई कर्म नहीं” और प्रेरणा दी जाती है की व्यर्थ है वो जीवन जो समाज या देश के हित में योगदान ना दे सके लेकिन बड़े खेद का विषय है कि हम ना तो इन मूल्यों को अपने जीवन में सम्पूर्ण तौर पर अमल में ला सके और ना ही उन पर अमल करने वालों का पूरे मन से समर्थन दे सके। भारत जैसे एक सुद्र्ढ शक्तिशाली समाज के निरन्तर गिरते हुए पतन की यह व्यथा दयनीय है और घातक भी, क्योंकि “अंतरकलाह से जूझती हूई वयवस्था और मौन रहने की संस्कृति” तो रोम जैसे साम्राज्य भी झेलने मेँ असमर्थ थे।

परिस्थिथियों को सुधारने के लिए जरूरी है कि कल से सीखे, आज में जिये और जरूरी है कि ‘प्रश्न करना मत छोड़ीय” फिर चाहे वह सरकार से हो या ख़ुद से।

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